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आरंभ से ही रचनाकारिता मानव सभ्यता के विकास का मंत्र रही है.आज विध्वंस के आतंक के बीच फिर से रचनाकार को ढूँढता और उन्हें प्रोत्साहन हेतु है यह मंच. कृति,विकृति,आकृति,अनुकृति,मंचन,गायन,संगीत,चित्रकला,इन सब में "कला वही जो मन को छू ले,विकृत हो तो विकार तुम्हारा!".(निस्संकोच ब्लॉग पर टिप्पणी/ अनुसरण/निशुल्क सदस्यता व yugdarpanh पर इमेल/चैट करें 9911111611, 9654675533.

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Monday, January 17, 2011

वाणी और वीणा की परम्परा--------------------------------------विश्वमोहन तिवारी पूर्व एयर वाइस मार्शल

,"कला वही जो मन को छू ले,विकृत हो तो विकार तुम्हारा!"-तिलक



वाणी और वीणा की परम्परा



ध्रुपद ही ऐसी शास्त्रीय संगीत शैली है जिसमें गायन की संगत वीणा से होती है यद्यपि वीणा का स्वतंत्र अस्तित्व भी है। यह वह शैली है जो भारत की मूल संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती है। सरस्वती देवी एक हाथ में ग्रन्थ लिये हैं और दूसरे हाथ में वीणा। ऐसा भी नहीं कि खयाल शैली में शब्दों का महत्त्व नहीं है,है,पर कम। ध्रुपद गायन में शब्दों के स्पष्ट उच्चारण को आवश्यक माना गया है। ध्रुपद शब्द संस्कृत के ध्रुवपद का प्रचलित रूप है। ध्रुवपद वह गायन है जिसमें प्रत्येक पद निश्चित ह्यध्रुवहृ स्वर और ताल में निबद्ध हो। ध्रुवपद में एक और अर्थ लक्षित है – ध्रुव ने साधना कर ब्रह्म पद प्राप्त किया था,ध्रुपद का भी प्रमुख उद्देश्य वही है अर्थात ध्रुपद प्रधानतया आध्यात्मिक साधना का माध्यम है,और सच्चा सुख प्रदान करता है। शास्त्रीय संगीत का,और इसलिये ध्रुपद का उत्स सामवेद का उद्गीथ है,ओम है,नाद ब्रह्म है,शब्द ब्रह्म है। यहीं से साधना हेतु शब्द और स्वर का एक होना प्रारम्भ हुआ,जिस वाणी और वीणा का समागम,खयाल के विपरीत,ध्रुपद अभी तक जीवन्त बनाए हुए है। ध्रुपद स्वर,ताल तथा शब्द की त्रिवेणी है। किन्तु मध्ययुग के अन्त तक इसके आलाप में जो पहले,‘हरि ओम नारायण तत् सत’ या ‘ओम त्वम् अनन्त हरि ओम’ के गायन हुआ करते थे वे ‘तान तरन तुम’ या ‘नाम तोम’ या ‘न री रूम’ आदि में परिणित हो गये।

सामवेद के गान के पाँच अंगों के स्थान पर पारंपरिक ध्रुपद के चार ही अंग होते हैं – स्थाई,अन्तरा,संचारी तथा आभोग।किंतु आज ध्रुपद के चार अंग हैं – आलाप,पदगायन,लयबाँट तथा बोलबाँट। ध्रुपद का आलाप लम्बा होता है जिसमें राग का परिचय दिया जाता है ताकि रचना या बन्दिश का पूरा आनन्द उठाया जा सके। राग का वादी अर्थात प्रमुख स्वर,संवादी अर्थात प्रमुख सहायक स्वर,अनुवादी अर्थात सहायक स्वर,दुर्बल स्वर,विवादी अर्थात विरोधी स्वर और आरंभिक ह्यगृहहृ स्वर अर्थात वह स्वर जिस पर संगीतज्ञ अपनी कल्पना के विस्तार के बाद लौटता है,आदि राग के नियमों के अनुसार राग का रूप निर्धारित करते हैं। प्रत्येक घराने के इन नियमों को पालने की अपनी अपनी शैलियां होती हैं जो उन्हें विशिष्टता प्रदान करती हैं।

आलाप के बाद संगीतकार पखावज की थपिया के साथ प्रबन्ध या बन्दिश का राग के नियमों तथा घराने की शैलियों के अनुसार पद विस्तार करते हैं जो ताल की लय के अनुसार ही किया जाता है। पदगायन में पदों का सही उच्चारण स्वर की स्पष्टता पर आधारित होता है। पदों का इतना महत्त्व है कि बैजू तथा तानसेन के पदों को ध्रुपद गायक आज भी गाते हैं। बैजू और तानसेन के एक एक पद के उदाहरण प्रस्तुत हैं –


नाद ब्रह्म को अगाध ब्योरो जानत गुनी जन बखानत याको कोउ न पार पाइया।।

सप्त सुर तीन ग्राम अकइस मुरछना उरपति रप लाग डाट राग छतीसे तियाइया आइ आइया।।

रोही अवरोही बाइस सुरत उनचास कोट तान के बिधि गाइया।।

कहै नायक बैजू मृदंग भेद ताल ध्याय संगीत मत कहे तियाइया ऐ ऐया।।


एरी आली आज शुभ दिन गावहु मंगल चार।।

चौक पुरावो मृदंग बजावो रिझावो बंधावो बन्दनवार।।

गुनी गंधर्व अपसरा किन्नर बीन रबाब बजे करतार।।

धन धरी धन पल मुहूरत तानसेन प्रभू पर बलिहार।।


भारतीय ताल तथा लय के खेल,शेष विश्व की तुलना में चमत्कार कहलाएंगे। ‘लय बाँट’ वाले तीसरे क्रम में तिहाई,चक्करदार तिहाई,द्विगुन,त्रिगुन,चौगुन,पौनगुन,आड़ी,कुआड़ी आदि रोमांचकारी लयों के खेलों के साथ गायक स्वर तथा शब्द के साथ लय तथा ताल की त्रिवेणी में श्रोता को अवगाहन कराता है। इसके बाद बोेलबाँट में वह पदों के कुछ कुछ अंशों को लेकर विभिन्न स्वर–लहरियों द्वारा राग के रूप की नई नई छटाएं प्रस्तुत करता है,जिसमें शब्दों के नवीन अर्थों का सम्प्रेषण भी प्रमुख रहता है।

खयाल गायकी में संयोग तथा वियोग शृंगार रस प्रधान रहता है,जब कि धु्रपद में भक्ति,शांत,शृंगार तथा वीररस प्रधान रहते हैं। ध्रुपद में गांभीर्य,माधुर्य तथा शुद्धता पर अधिक बल रहता है और खयाल गायकी में मनोरंजकता पर। दोनों शैलियों का संगीत में स्थान होना चाहिये,ऐसा न हो कि मनोरंजकता के कारण खयाल गायकी दिव्य ध्रुपद को किनारे कर दे। श्रोताओं के साथ गायकों का भी इस हेतु उत्तरदायित्व बनता है। भारतीय शास्त्रीय संगीत में प्रत्येक संगीतकार को रचने की जितनी स्वतंत्रता है उतनी पाश्चात्य शास्त्रीय संगीत में नहीं। इस कारण भारतीय शास्त्रीय संगीत पूरी तरह लिखा नहीं जाता और गुरु से ही सीखा जा सकता है। अतएव गुरुकुल अर्थात गुरु–शिष्य परम्परा अत्यावश्यक है। सन 47 से राजाओं की समाप्ति से घरानों की परम्परा खतरे में आ गई थी। स्वामी हरिदास डागर घराने के उन्नीसवीं संतति के उस्ताद ज़िया मोहिउद्दीन डागर ने,ऐसी कठिन स्थिति में पलास्पे,पनवेल,मुम्बई में एक गुरुकुल की स्थापना की और अनेक विश्वप्रसिद्ध ध्रुपद संगीतज्ञ निर्मित किये। भारत भवन मध्यप्रदेश शासन ने भी भोपाल मेें ध्रुपद केन्द्र की स्थापना कर एक क्रांतिकारी कदम उठाया है। इस केन्द्र में उस्ताद ज़िया मोहिउद्दीन डागर के छोटे भाई उस्ताद ज़िया फरीदुद्दीन डागर गायकी की शिक्षा देते हैं तथा उन्हीं के पुत्र मोहि बहाउद्दीन डागर ह्यबीसवीं संततिहृ वीणा की। ध्रुपद केन्द्र भोपाल ने भी विश्वप्रसिद्ध संगीतज्ञों का निर्माण किया है। दिल्ली वालों की आवश्यकताओं को यथासंभव पूरा करने के लिये उस्ताद ज़िया फरीदुद्दीन डागर दिल्ली में ध्रुपद कार्यशालाओं का आयोजन करते रहते हैं। इस समय ऐसी कार्यशाला का आयोजन 22 दिसंबर से 02 जनवरी तक 113 जोरबाग,नई दिल्ली में हो रहा है।




143्र21,नौएडा 201301


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